मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024

काव्य की परिभाषा या लक्षण

 


  • काव्य चिंतन का प्रस्थान : 

भारतीय साहित्य चिंतन काव्यानुरागी रहा । यद्यपि भारतीय साहित्य चिंतन की शुरुआत भरतमुनि के नाट्यशास्त्र से होती है जिसे नाटक अध्ययन का एक प्रामाणिक और महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है लेकिन काव्यशास्त्र के व्यवस्थित शुरुआत और एक क्रमिक विकास आचार्य दंडी से माना जाता है वह मुख्ययतः अलंकार शास्त्री थे और उनके अध्ययन का मुख्य क्षेत्र काव्य था ।  इसलिए काव्य की परिभाषा या पहचान का प्रस्थान बिंदु भी आचार्य दंडी को ही माना जा सकता है उन्होंने काव्य की परिभाषा देते हुए कहा  'शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्नापदावली', अर्थात इष्ट अर्थ से युक्त पदावली तो उसका अर्थात कवि काव्य का शरीर मात्र है ।

  • वाङ्मय, साहित्य और काव्य : 

संस्कृत साहित्य में साहित्य के लिए वाङ्मय और काव्य दोनों शब्दों का प्रयोग होता है वाङ्मय  मुख्यत: साहित्य के सभी रूपों चाहे वह सृजन का साहित्य हो अथवा ज्ञान का । दोनों के लिए प्रयोग में आता है । जबकि काव्य का प्रयोग मुख्यतः सृजनात्मक साहित्य के लिए होता है । एक उक्ति है काव्येषु नाटकं तत्र रम्या शकुंतला तत्रापि चतुर्थो अंक: तत्र श्लोक चतुष्टयम्।' यहाँ यह स्पष्ट है कि शकुंतला नाटक को काव्य के अंतर्गत रखा गया है और नाटक को काव्य का श्रेष्ठतम  रूप  कहा गया है। इस आधार पर यदि देखें तो नाटक काव्य का अंग है और भरत मुनि ने  नाटक की परिभाषा देते हुए कहा है : 

मृदुललित पदाढ्यं गूढ़शब्दार्थहीनं जनपदसुखबोध्यं युक्तिमन्नृत्ययोज्यम्।

बहुकृतरसमार्गं संधिसंधानयुक्तं स भवति शुभकाव्यं नाटकप्रेक्षकाणाम्॥"


(यहाँ क्रमशः सात विशेषताएँ वर्णित हैं — मृदुललित पदावली, गूढ़शब्दार्थहीनता, सर्वसुगमता, युक्तिमत्ता, नृत्योपयोगयोग्यता, बहुकृतरसमार्गता तथा संधियुक्तता। इसमें पाँचवाँ तथा सातवाँ नाटक की दृष्टि से वर्णित हैं, शेष में गुण, रीति, रस एवं अलंकार का वर्णन है।)

    आचार्य भरत मुनि ने नाटकों काव्य का अंग मानते हुए ही नाटक की परिभाषा की। अग्नि पुराण में शास्त्र इतिहास आदि से भिन्न काव्य  की पहचान बताते हुए कहा गया कि 'जिस में संक्षिप्त वाक्यों द्वारा अभीष्ट अर्थ की व्यंजना हो,  अविच्छिन्न पदावली हो तथा जओ अलंकार और गुणों से युक्त तथा दोषों से रहित हो उसी रचना को काव्य कहा जाता है।  

  • संस्कृत आचार्य परंपरा में काव्य : 

    आचार्य भामह ने काव्यालंकार में काव्य की परिभाषा देते हुए कहा "शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्" अर्थात शब्द और अर्थ का सह भाव या सहित भाव ही काव्य है । सहित भाव का अर्थ यह लिया जा सकता है कि शब्द और अर्थ दोनों एक दूसरे का हित करते होंं।  यानी एक दूसरे को पुष्ट करते हों। ऐसे शब्दार्थ प्रयोग को काव्य कहा जाता है।  भामह के बाद आचार्य दंडी ने काव्य की परिभाषा देते हुए कहा कि  'शरीरं तावदिष्टार्थ व्यवच्छिन्नापदावली', अर्थात काव्य का शरीर वांछित अर्थ को उद्घाटित करने वाले पदावली है। 

         वामन ने अपनी पुस्तक 'अलंकार सूत्र' में काव्य के संबंध में लिखा कि 'रीतिरात्मा काव्यस्य' आगे उन्होंने 'रीति' पद को परिभाषित करते हुए कहा कि 'विशिष्ट पद रचना रीतिः।' और फिर विशेष को परिभाषित करते हुए कहा-- 'विशेषो ग़ुणात्मा' । 

आगे कुंतक काव्य का आधार 'वक्रोक्ति' को मानते हैं और वक्रोक्ति को काव्य का जीवित तत्व अर्थात प्राण तत्व घोषित करते हैं । उनके अनुसार 'वक्रोक्ति काव्य जीवितम' अर्थात वक्रोक्ति काव्य का प्राण तत्व है।"शब्दार्थौ सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनी। बंधे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादकारिणी॥" (वक्रोक्तिजीवितम्, १/७)

जारी...

बुधवार, 22 अगस्त 2018

त्रासदी : अरस्तू



रूपरेखा :
o   प्रस्तावना
o   त्रासदी की परिभाषा
o   त्रासदी के अंग
1.        कथानक
2.        चरित्र
3.        पदावली
4.        विचार
5.        दृश्य-विधान
6.        गीत
o   त्रासदी और विरेचन
o   सारांश
·        प्रस्तावना :
            अरस्तू यूनान के प्रसिद्ध दार्शनिक थे । उन्होंने दर्शन के साथ-साथ ज्ञान के अन्य अनुशासनों में भी महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है । साहित्य-चिंतन उनमें से एक है। उन्होंने इस क्षेत्र में अपने गुरू प्लेटो की मान्यताओं में संशोधन करते हुए प्रसिद्ध अनुकरण सिद्धांत प्रस्तुत किया, जिसका संबंध मुख्यतः साहित्य या काव्य की  रचना-प्रक्रिया से है । प्लेटो ने अनुकरणमूलक होने के साथ-साथ लोगों के भीतर स्थित मानो विकारों को प्रेरित करने के कारण काव्य का विरोध किया था। उनकी इस दूसरी मान्यता का आधार मुख्य रूप से ट्रेजडी थी, जो उस समय यूनानी साहित्य की एक महत्त्वपूर्ण विधा थी। प्लेटो यूनानी ट्रेजडी-परंपरा के महत्त्वपूर्ण कवि होमर के बारे में लिखा है— “यद्यपि अपने यौवन के आरंभ से ही होमर के लिए मुझे संभ्रम तथा प्रेम रहा है, जिससे अब भी मेरे शब्द होठों पर लड़खड़ाने लगते हैं क्योंकि होमर मोहक दुःखांतकीय पूरे समुदाय के महान नेता और गुरु हैं, किंतु सत्य की अपेक्षा व्यक्ति को अधिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता।” उन्होंने यह भी लिखा है कि काव्य मनोवेगों का पोषण करता है और उन्हें सींचता है तथा दुःखांतक रोने धोने को बढ़ावा देकर समाज को कमजोर बनाता है। काव्य और विशेषतः ट्रेजडी के बारे मैं प्लेटो की ये दोनों मान्यताएँ ही अरस्तू के ट्रेजडी संबंधी विवेचन और विरेचन सिद्धांत का आधार है । उन्होंने इन दोनों के संबंध में एक साथ विचार किया है।
त्रासदी की परिभाषा :
            भारतीय साहित्य-चिंतन की तरह ही पश्चिमी साहित्य-चिंतन का आरंभ भी मंचीय विधा  से हुआ । जैसे भारत में नाट्यशास्त्र मुख्यतः नाटक-केन्द्रित ग्रंथ है, वैसे ही प्लेटो और अरस्तू का साहित्य-चिंतन त्रासदी को केंद्र में रखकर विकसित हुआ है । ट्रेजडी और नाटक दोनों ही मंचीय विधाएँ हैं । उन्हें मानव की अनुकरणमूलक आदिम प्रवृत्ति से जोड़कर आदिम विधा कहा जा सकता है । इस अनुकरणमूलकता और उसके कार्यव्यापार रूप होने को अरस्तू ने अपनी परिभाषा में विशेष रूप से रेखांकित भी किया है— “त्रासदी स्वतः पूर्ण, निश्चित आयाम से युक्त कार्य की अनुकृति का नाम है । यह समाख्यान के रूप में न होकर कार्य-व्यापार-रूप में होती है । इसका माध्यम नाटक के विभिन्न भागों में तदनुरूप प्रयुक्त सभी प्रकार के आभरणों से अलंकृत भाषा होती है ।  उसमें करुणा तथा त्रास के उद्रेक के द्वारा इन मनोविकारों का उचित विरेचन किया जाता है ।”
            अरस्तू की इस परिभाषा में जो विंदु विशेष रूप से रेखांकित किए जा सकते हैं, वे इसप्रकार हैं—
  • 1.       यह अनुकरण मूलक है ।
  • 2.       यह स्वतःपूर्ण और निश्चित आयामों से युक्त होती है ।
  • 3.       यह समाख्यान न होकर कार्य-व्यापार के रूप में होती है ।
  • 4.       यह भाषा के माध्यम से व्यक्त होती है, जो त्रासदी के विभिन्न भागों के अनुरूप होनी चाहिए ।
  • 5.       त्रासदी का उद्देश्य करुणा या त्रास द्वारा मनोविकारों का उचित विरेचन होता है ।



बुधवार, 15 अगस्त 2018

अनुकरण सिद्धांत : अरस्तू



रूपरेखा :
·        प्रस्तावना
·        प्लेटो की अनुकरण संबंधी मान्यताएँ
·        अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत
·        अरस्तू के अनुकरण की व्याख्याएँ
(i)                 नवक्लासिकी व्याख्या
(ii)               स्वच्छंदतावादी व्याख्या
(iii)             रूपवादी या संरचनावादी व्याख्या
·        प्लेटो और अरस्तू के सिद्धांतों में अंतर
·        सारांश
1.       प्रस्तावना :
यूनान पश्चिमी दुनिया की प्राचीन संस्कृति का एक महत्वपूर्ण केंद्र रहा है । ज्ञान-विज्ञान, कला, इतिहास, साहित्य और चिंतन में पश्चिम का समूचा आधुनिक संसार उसी की विरासत पर टीका है । पुनर्जागरण काल में जिस साहित्य और चिंतन ने पूरे यूरोप में चेतना की नई किरण फैलाई, उसमें बड़ा हिस्सा यूनानी साहित्य और चिंतन का था, जो अंधकार युग के दौरान विस्मृत-सा हो गया था  । यूनान प्लेटो, अरस्तू, होमर, हेरोडोटस (इतिहास का जनक), हिकैटियस (भूगोल का पिता) आदि तमाम दार्शनिकों, चिंतकों, कवियों और बहुविद्याविदों की प्रतिभाओं से संवलित एक समृद्ध सभ्यता रही है । तमाम विद्याओं, साहित्य-विधाओं और कला-रूपों की तरह ही यूरोपीय साहित्य-चिंतन की आधार-भूमि भी यूनान ही है । इसका बीज हमें प्लेटो की इओन से रिपब्लिक तक और विकास अरस्तू की पेरीपोइतिकस में दिखाई देता है । सुकरात-प्लेटो-अरस्तू परस्पर गुरु-शिष्य संबंध से जुड़े थे । इसका निदर्शन हमें उनके काव्य-चिंतन विशेषतः अनुकरण सिद्धांत के संबंध में भी दिखाई देता है । यहाँ प्लेटो की मान्यताएँ जहाँ सिद्धांत के प्रस्तावना का काम करती हैं, वहीं अरस्तू के विचार उसकी सीमाओं का विस्तार करते हुए उसे एक नए स्वरूप में प्रस्तुत करते हैं । यह प्लेटो द्वारा प्रस्तावित संकल्पना अनुकरण से जुड़ी होकर भी उससे बहुत अलग है । इसके महत्त्व का पता इससे चलता है सिद्धांत के प्रस्तावित होने के कई हजार वर्ष बाद अस्तित्व में आने वाली चिंतन धाराएँ नवशास्त्रीयतावाद, स्वच्छंदतावाद और रूपवाद या संरचनावाद को अपनी जड़ों की तलाश के क्रम में इसकी पुनर्व्याख्या की जरूरत महसूस होती है । वे अपनी-अपनी तरह से इसकी व्याख्याएँ करते भी हैं ।
2.       प्लेटो की अनुकरण संबंधी मान्यताएँ :
            प्लेटो का जन्म यूनान के नगर राज्यों में से एक महत्त्वपूर्ण और वैभवशाली राज्य एथेंस में हुआ था । उनके बचपन से यौवन तक के दिन स्पार्टा और एथेंस के युद्ध की छाया में ही बीते थे और अपनी उदात्त सांस्कृतिक उपलब्धियों के बावजूद इस युद्ध में एथेंस की हार हुई थी । इस अनुभव ने प्लेटो के चिंतन पर गहरा प्रभाव डाला । उनकी काव्य और कला संबंधी मान्यताएँ इसकी प्रमाण हैं । उन्होंने एक आदर्श राज्य की संकल्पना के संदर्भ में उनपर विचार किया है और इस क्रम में काव्य को अग्राह्य माना है । उनके अनुसार काव्य मनोवेगों का पोषण करता है और उन्हें सींचता है तथा दुःखांतक रोने धोने को बढ़ावा देकर समाज को कमजोर बनाता है   लेकिन, उन्होंने काव्य-मात्र का विरोध नहीं किया है । देवस्त्रोतों तथा महापुरुषों के आख्यानों का स्वागत ही किया है । वे काव्य की ग्राह्यता और अग्राह्यता की कसौटी उसकी उपयोगिता को मानते हैं, जो उपयोगी है वही शुभ और वही सुंदर है, इसलिए ग्राह्य भी है ।
            प्लेटो की साहित्य या कला संबंधी दृष्टि को समझने के लिए माइमेसिस सबसे महत्त्वपूर्ण अवधारणा है । हिंदी में इसे ही अनुकरण कहते हैं । उन्होंने यह अवधारणा पूर्व-परंपरा से ग्रहण की और माना कि अन्य कलाओं की तरह ही काव्य भी एक अनुकृतिमूलक कला है और उन्होंने वह आधार-भूमि तैयार की, जिसपर पाश्चात्य साहित्य-चिंतन का अनुकरण सिद्धांत खड़ा है ।
            प्लेटो प्रत्ययवादी चिंतक थे । उनके अनुसार सत्य प्रत्यय-जगत में स्थित होता है और वस्तु-जगत उसकी अनुकृति है । साहित्यकार या कलाकार भौतिक वस्तुओं के आधार पर अपनी धारणा बनाता है और उसे साहित्य या अन्य कला-रूपों में व्यक्त करता है । इसलिए वस्तु-जगत तथा कला-जगत के बीच अनुकृतिमूलक संबंध होता है । वस्तु-जगत प्रत्यय-जगत की अनुकृति है और कला-जगत वस्तु-जगत की । इसलिए मूल सत्य जो प्रत्यय-जगत में स्थित है, की दूरी प्रत्यय-जगत से तिगुनी हो जाती है ।
            प्लेटो के अनुसार सत्य विचार-रूप, अमूर्त और सार्वभौम है । वस्तुजगत में उसका अनुकरण भौतिक वस्तु के रूप में आकार लेता है । इसलिए वह मूर्त और विशिष्ट हो जाता है, न कि अपने मूल रूप में अमूर्त और सार्वभौम बना रहता है । कलाकार जब वस्तु जगत का अनुकरण करता है, तो वह ऐसा इसी मूर्त और विशिष्ट रूप के आधार पर करता है । इसलिए उसे सत्य का तात्विक ज्ञान नहीं होता । वस्तु-जगत की भौतिक  वस्तुओं को बनाने वाला व्यक्ति उससे इसी अर्थ में भिन्न होता है कि उसे सत्य का तात्विक ज्ञान तो होता है, लेकिन वह उसका अनुकरण नहीं कर पाता है । अतः कलाकार को सत्य का तत्त्व-ज्ञान न होने के कारण प्लेटो साहित्य या कला को मिथ्या मानते हैं ।
            प्लेटो अपनी इस मान्यता को पुष्ट करने के लिए एक मेज का उदाहरण देते हैं । मेज सबसे पहले विचार-रूप में आती है, जो अमूर्त होती है । बढ़ई उसे एक वस्तु के रूप में मूर्त आकार देता है । कलाकार या साहित्यकार उसको देखकर धारणा बनाता है, जिसका अनुकरण वह अपनी कलाकृति या साहित्य में करता है । इसलिए साहित्य या कला में व्यक्त मेज का रूप विचार-रूप में आई मेज का आभास-भर रह जाता है । अतः यह सत्य न होकर मिथ्या है ।
            महान यूनानी कवि होमर के बारे में  प्लेटो ने लिखा है — “यद्यपि अपने यौवन के आरंभ से ही होमर के लिए मुझे संभ्रम तथा प्रेम रहा है, जिससे अब भी मेरे शब्द होठों पर लड़खड़ाने लगते हैं क्योंकि होमर मोहक दुःखांतकीय पूरे समुदाय के महान नेता और गुरु हैं, किन्तु सत्य की अपेक्षा व्यक्ति को अधिक महत्त्व नहीं दिया जा सकता ।” उनका यह कथन सत्य के प्रति उनकी निष्ठा के साथ-साथ  काव्य के लिए उनके मन में लगाव को भी दिखाता है । पहले इस बात का उल्लेख किया जा चुका है कि प्लेटो मनोविकारों को उत्तेजित करने वाले साहित्य का तो विरोध करते हैं । किन्तु, देवस्त्रोतों और महापुरुषों के आख्यानों का विरोध नहीं करते हैं, क्योंकि उनके लिए साहित्य की कसौटी समाज के लिए शुभता है और शुभता का अर्थ उपयोगिता है । इसीलिए उन्होंने यह भी लिखा है कि “यदि प्रिय लगने वाली मधुर कविता या अनुकरणात्मक कलाएँ किसी सुव्यवस्थित राज्य में बने रहने के लिए युक्ति प्रस्तुत कर सकें तो हम सहर्ष उन्हें नगर मैं प्रवेश करा लेंगे, क्योंकि हम स्वयं उनके आकर्षण के बारे में बखूबी सचेत हैं ।”
3.       अरस्तू का अनुकरण सिद्धांत :
            अरस्तू का साहित्य-चिंतन प्लेटो के चिंतन का विकास, विस्तार या संशोधित रूप माना जा सकता है । अरस्तू की काव्य संबंधी तीन महात्यवपूर्ण मान्यताएँ अनुकरण ट्रेजडी और विरेचन प्लेटो की मान्यताओं पर ही आधारित है । अनुकरण-सिद्धांत में जहाँ उन्होंने स्पष्ट रूप से प्लेटो की मान्यताओं की सीमाएँ स्पष्ट कर उसे विस्तार देने की कोशिश की है, वहीं ट्रेजडी और वीरेचन में उन्होंने एक तरह से प्लेटो द्वारा ट्रेजडी पर लगाए गए समाज के लिए अग्राह्यता के आरोप का परिहार करने की कोशिश की है ।
            प्लेटो की तरह ही अरस्तू भी यह मानते हैं कि “चित्रकार या किसी अन्य कलाकार की तरह ही कवि भी अनुकर्ता है ।” काव्य के विभिन्न रूप— त्रासदी, महाकाव्य, कामादी आदि अनुकरण के ही प्रकार हैं । परंतु, अरस्तू ने अनुकरण शब्द और कवि को अनुकर्ता मानने की परंपरा का निर्वाह करते हुए भी इनकी व्याख्या अलग अर्थ में की है । उन्होंने प्लेटो के अनुकरण को तो ग्रहण किया, लेकिन उसे उसकी नकारात्मक छवि से मुक्त करके देखने की कोशिश की ।  उन्होंने काव्य को प्रकृति की अनुकृति कहा है । अनुकर्ता कवि जिस अनुकार्य का अनुकरण करता है उसकी प्रकृति की व्याख्या करते हुए कहा है कि वह तीन प्रकार की वस्तुओं में से कोई भी हो सकती है— 1. जैसी वे थीं या हैं, 2. जैसी वे कही या समझी जाती हैं या 3. जैसी वे होनी चाहिए ।
            उन्होंने कवि और इतिहासकार के बीच अंतर बताते हुए कहा है कि इतिहासकार उसका वर्णन करता है, जो हो चुका है और कवि उसका वर्णन करता है, जो हो सकता है । काव्य का लक्ष्य इतिहास से भव्यतर होता है, उसमें दार्शनिकता भी होती है । जैसी होनी चाहिए के वर्णन का अर्थ काव्य का प्लेटो के अर्थ में अनुकरण की सीमा से बाहर हो जाना है । यह एक आदर्श स्थिति है, जिसकी कल्पना के लिए कलाकार या कवि स्वतंत्र है । प्लेटो की तरह अरस्तू के लिए सत्य से दूर होने पर काव्य अग्राह्य नहीं हो जाता । अतः अरस्तु के लिए कला नकल न होकर पुनर्रचना या पुनर्सृजन है । इसकी पुष्टि त्रासदी के कथानक संदर्भ में उनकी मान्यता से भी होती है । उन्होंने कथानक के स्रोतों पर बात करते हुए उसके तीन स्रोत— 1. दंतकथाएँ  2. कल्पना और 3.इतिहास की चर्चा की है । वे दंतकथाओं को इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण मानते हैं कि उसमें सत्यांश के साथ-साथ कल्पना का समन्वय रहता है । स्पष्ट है कि उनके लिए सत्यांश की उपस्थिति और कल्पना का समावेश ही साहित्य का आदर्श है क्योंकि साहित्य का लक्ष्य नाम रूप से विशिष्ट व्यक्तियों के माध्यम से सार्वभौमिकता की सिद्धि होती है ।
4.       अरस्तू के अनुकरण की व्याख्याएँ :
            अरस्तू के लिए अनुकरण मूल की नकल न होकर मूल पर आधारित होते हुए भी उससे भिन्न हो जाना है । परवर्ती विद्वानों ने उनके अनुकरण मत की अलग-अलग तरह से व्याख्याएँ कीं जिन्हें तीन श्रेणियों में रखा जा सकता है—
i.        नवक्लासिकी व्याख्या
ii.      स्वच्छंदतावादी व्याख्या
iii.    रूपवादी या संरचनावादी व्याख्या

i.        नवक्लासिकी व्याख्या : अरस्तू के अनुकरण की नवक्लासिकी व्याख्या करने वालों में सबसे महत्त्वपूर्ण नाम होरेस का है। उन्होंने इसका अर्थ प्राचीन काव्य सिद्धांतों के साथ प्राचीन श्रेष्ठ काव्यों का अनुसरण आवश्यक माना । मध्यकालीन व्याख्याकारों ने काव्य प्रकृति की अनुकृति है की व्याख्या करते हुए प्रकृति का अर्थ नियमों से बँधा हुआ और अनुकृति का अर्थ यंत्रवत् प्रत्यांकन किया । इन दोनों व्याख्याओं की सीमा यह है कि जैसा हो सकता है या जैसा होना चाहिए के लिए इसमें कहीं अवकाश नहीं है । फिर, त्रासदी में सटयांश और कल्पना की संभावना के लिए भी जगह नहीं बचाती । इसलिए अरस्तू का अनुकरण इन अर्थ-छवियों के साथ संगत नहीं बैठता है ।

ii.      स्वच्छंदतावादी व्याख्या : स्वच्छंदतावादी व्याख्याकारों ने साहित्य को अनुकरण या तथावत प्रत्यंकन तक सीमित करने पर सवाल उठाए है । बूचर ने कहा कि, “कौन कहता है कि कलाकार या कवि अनुकर्ता है, वह तो ईश्वर की तरह स्वयं कर्ता है, काव्य जगत का निर्माता है । बूचर के अनुसार अरस्तू का अनुकरण से आशय सादृश्य-विधान या मूल का पुनरुत्पादन है । गिल्बर्ट मरे के अनुसार यूनीनी भाषा में कवि के लिए पोएतेस का प्रयोग होता है और उसका व्युत्पत्तिपरक अर्थ कर्ता या रचयिता है । इसलिए अनुकरण का अर्थ रचना या करण होना चाहिए । इसी तरह एटकिंस ने अनुकरण को सरजनात्मक दर्शन की क्रिया या फिर पुनःसृजन का दूसरा नाम माना है और स्कॉट जेम्स ने इसे जीवन का कल्पनात्मक पुनर्निर्माण कहा है ।

iii.    रूपवादी या संरचनावादी व्याख्या : बीसवीं सदी के मध्य नव-अरस्तूवादी आलोचकों को शिकागो स्कूल का आलोचक कहा गया है । उनकी मुख्य चिंता कालाकृति की स्वायत्तता की प्रतिष्ठा करना था । क्रेन के अनुसार कला में अनुकरण का अर्थ किसी प्राकृत रूप या प्रक्रिया का सादृश्य रचना है । हार्वे डी. गोल्डस्टीन ने प्रकृति के अनुकरण का आशय कला की रचना पद्धति और प्रक्रिया में प्रकृति की प्रक्रिया और पद्धति का अनुकरण है’, वस्तु का अनुकरण नहीं है ।

5.       प्लेटो और अरस्तू के साहित्य-चिंतन में अंतर :
प्लेटो और अरस्तू दोनों का संबंध यूनानी चिंतन-परंपरा से है और उनके बीच गुरु-शिष्य का संबंध है । अनुकरण सिद्धांत की मूल संकल्पना प्लेटो ने दी। अरस्तू ने उसमें संशोधन और विस्तार किया । लेकिन, इन दोनों की मान्यताओं में पर्याप्त अंतर है ।
इसे निम्नलिखित